
Himachal floods: मेरा घर ब्यास नदी से करीब 6 किलोमीटर दूर नग्गर में है, देवदार के पेड़ों के बीच, सेब के बगीचों से घिरा हुआ। यह दूरी सुनने में भले ही छोटी लगे, लेकिन पहाड़ों में यह सफर लंबा हो जाता है। नदी से ऊंचाई पर होने की वजह से हमेशा सुरक्षित महसूस होता था। लेकिन पहाड़ों की यही दूरी कभी-कभी आंखों पर परदा डाल देती है। नीचे घाटी में क्या हो रहा है, अक्सर ऊपर बैठे हमें उसकी भनक भी नहीं लगती।
26 अगस्त को अपने घर से मैंने ब्यास नदी को देखा, जो आमतौर पर दूध सी सफेद और शांत रहती है, उस दिन काली और हिंसक हो चुकी थी। उसकी दहाड़ नग्गर की ऊंचाइयों तक गूंज रही थी। यह आवाज साफ बता रही थी, नीचे सबकुछ ठीक नहीं है।
25 अगस्त की दोपहर से बारिश शुरू हुई थी। लगा था कि ये अन्य दिनों की तरह ही थोड़ी देर में रुक जाएगी, लेकिन रातभर बारिश थमी ही नहीं। अगले दिन सुबह भी बारिश उसी रफ्तार से जारी रही। दोपहर तक सिग्नल चला गया और मन में वही डर लौट आया- क्या यह 2023 जैसी तबाही की आहट है? उस साल भी हिमाचल में ऐसी ही बारिश ने बर्बादी मचाई थी। बिजली-पानी कट गया था, सिग्नल चार दिन तक गायब थे। इस बार भी हालात उसी रास्ते पर बढ़ते दिखे।
शाम होते-होते ब्यास का शोर और बढ़ गया। आस-पड़ोस में चर्चा शुरू हो चुकी थी- नीचे पतलीकूहल का पुल फिर टूट गया है, दुकानें बह गई हैं। लोग अपनी गाड़ियों में बैठकर नीचे नदी देखने जा रहे थे। यह पतलीकूहल का पुल नग्गर को चंडीगढ़-मनाली हाईवे से जोड़ता है, जो देश के सबसे अहम सड़कों में से एक है। 2023 की बाढ़ में इसी पुल के पिलर का एक हिस्सा पानी में बह गया था। तब से आज तक पुल का काम किसी तरह रेंगते-रेंगते चल रहा था। काम कैसा था, अब इसकी गवाही खुद ये पुल दे रहा है, जो इस बार फिर बाढ़ में बह गया है।
उस पुल और ब्यास नदी का मंजर आंखों के सामने आया तो रूह कांप गई। इतनी तेज धारा के सामने इंसान बेबस हो जाता है। रास्ते में जगह-जगह भूस्खलन, बड़े-बड़े पत्थर सड़क पर बिखरे थे। सालों पुराने पेड़ जड़ों से उखड़ गए थे। जिन छोटे-छोटे नालों में पानी ना के बराबर होता था, उसमें उस दिन इतना पानी था कि कोई पैर रखे तो बह ही जाए। कई जगह पहाड़ों से झरनों की तरह पानी बह रहा था।
यह सिर्फ नग्गर या पतलीकूहल का हाल नहीं था। मंडी, कुल्लू, चंबा, मनाली, सोलांग, लाहौल-स्पीति हर ओर वही तबाही थी। पहाड़ खिसक चुके थे, घर ढह चुके थे, रास्ते टूट चुके थे। यह सोचकर ही मन कांप जाता है कि इन दरकते पहाड़ों ने कितनी जिंदगियां उजाड़ दी होंगी।
पहले भी भूस्खलन होते थे, नदी का जलस्तर बढ़ता था, पर इस बार रफ्तार और असर दोनों कहीं ज्यादा थे।
हर आपदा के बाद सवाल उठते हैं। कोई कहता है टूरिज्म की वजह से होटलों और इमारतों का बेतरतीब निर्माण, कोई कहता है स्थानीय लोगों की लालच जो नदी-नालों के किनारे असुरक्षित क्षेत्रों में घर बना रहे हैं या जमीन लीज पर दे रहे हैं। कोई कहता है कि विकास के नाम पर टनल, डैम, सड़क की वजह से जो पेड़ कट रहे हैं, ये त्रासदी की वजह हैं। सवाल ये है कि क्या ये सब कुछ बंद कर देने से आपदाएं रुक जाएंगी? शायद नहीं। लेकिन यह भी सच है कि हर राय के पीछे कुछ न कुछ सच छिपा है।
अब जरा हिमाचल सरकार और सीधे तौर पर कहें तो मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू की कोशिशों पर नजर डालते हैं। सुक्खू ने प्राकृतिक आपदाओं को कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं। सिर्फ राहत और बचाव तक सीमित रहने के बजाय अब सरकार का ध्यान आपदा जोखिम कम करने (Disaster Risk Reduction) पर भी है।
नदियों और नालों के किनारे बेतरतीब निर्माण रोकने के लिए सख्त नियम बनाए गए हैं। ग्रामीण इलाकों में भी सुरक्षित निर्माण के मानक लागू किए जा रहे हैं। द हिन्दू (9 अगस्त 2025) की रिपोर्ट के मुताबिक, टाउन एंड कंट्री प्लानिंग मंत्री राजेश धरमानी ने बताया कि सरकार एक 'सेफ्टी काउंसिल' बनाने पर काम कर रही है।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट कहती है कि 15 अगस्त 2025 को स्वतंत्रता दिवस के मौके पर मुख्यमंत्री ने ₹3,000 करोड़ की एक बड़ी परियोजना शुरू करने की घोषणा की। इसका मकसद है आपदाओं के खतरे कम करना और प्रभावित इलाकों में लोगों की आजीविका को सुरक्षित रखना। इसके साथ ही सरकार ने दूरदराज के क्षेत्रों तक राहत और सामान पहुंचाने के लिए हाई कैपेसिटी ड्रोन खरीदने की योजना बनाई है। इन्हीं ड्रोन (LDHA) की मदद से 13-14 अगस्त के दौरान किन्नौर में एक बड़ा नुकसान टल गया था।
इतना ही नहीं, सरकार ने 'राजीव गांधी वन संवर्धन योजना' लागू की है, जिसके तहत ₹100 करोड़ की लागत से अगले 5 साल (2025-2030) में बंजर जमीन पर पेड़ लगाए जाएंगे। सीएम ने मार्च 2026 तक हिमाचल को 'ग्रीन स्टेट' बनाने का लक्ष्य रखा है ताकि कार्बन उत्सर्जन घटे और जलवायु परिवर्तन के असर से निपटा जा सके। स्कूलों में बच्चों को आपदा प्रबंधन सिखाने के लिए 'स्कूल्स सेफ्टी' नाम का मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया गया है।
कदम तो बहुत उठाए गए हैं, योजनाएं भी मजबूत लगती हैं, लेकिन सवाल यही है- क्या इन कोशिशों से सच में पहाड़ों को दरकने से रोका जा सकेगा और लोगों को बार-बार तबाही झेलने से बचाया जा सकेगा?
इन कोशिशों के बावजूद सवाल वही है। क्या यह सब काफी है? सेब बेचने वाले किसानों की गाड़ियां रास्तों में फंस गईं, लाखों का माल सड़ गया। उनके पेड़ गिर गए। वे पूछते हैं- क्या समय रहते कुछ और किया जा सकता था? बारिश सरकार या संस्था के बस में नहीं, लेकिन नुकसान कम हो, यह सुनिश्चित करना तो संभव था।
इस साल फिर हिमाचल ने प्राकृतिक आपदा का कहर झेला है। फ्लैश फ्लड, लैंडस्लाइड और बाढ़ ने 150 से ज्यादा लोगों की जान ले ली और ₹10,000 करोड़ से ज्यादा का नुकसान किया। विशेषज्ञ कहते हैं यह सब जलवायु परिवर्तन (climate change) का नतीजा है। हालांकि, सच्चाई यह भी है कि विकास के नाम पर इंसान ने खुद अपने पहाड़ों को जख्म दिए हैं और अब वही जख्म हर बारिश में हरे हो जाते हैं और 'त्रासदी का मवाद' रिसने लगता है।