
Kantara 2 Movie Review: कभी-कभी कोई फिल्म आपको बिल्कुल निशब्द कर देती है। कभी उसका असर इतना गहरा होता है कि शब्द ही नहीं मिलते। कभी आप इतने प्रभावित होते हैं कि उसके बारे में बात करना ही बंद नहीं कर पाते। और कभी वह आपके दिल को इतना छू जाती है कि आप बस उसकी जादुई दुनिया में खो जाते हैं।
लेकिन जब कोई फिल्म ये सब एक साथ कर दिखाती है, तो वह सिर्फ एक मास्टरपीस नहीं रह जाती वह एक सांस्कृतिक घटना बन जाती है। ऋषभ शेट्टी की ‘कांतारा: चैप्टर 1’ ठीक ऐसा ही असर छोड़ती है।
फिल्म की शुरुआत कदंब वंश और उसके क्रूर शासक से होती है, जिसकी लालच हर ज़मीन और पानी को कब्ज़े में लेने की है। चाहे आदमी हो, औरत या बच्चा उसके लिए कोई मायने नहीं। वह सबको मारकर अपनी हुकूमत फैलाता है।
एक बार, ऐसे ही अभियान के दौरान वह समुद्र किनारे मछली पकड़ते एक रहस्यमयी बूढ़े आदमी को देखता है। अपने सैनिकों को उसे पकड़ने का आदेश देता है। जैसे ही वे उसे खींचकर ले जाते हैं, उसके थैले से कीमती सामान गिरते हैं।
शासक उन चीज़ों को देखता है और उनके स्रोत की खोज में निकल पड़ता है। यह सफ़र उसे कांतारा तक ले जाता है, जहां जनजातियां प्रकृति के साथ सामंजस्य में रहती हैं। जब उसकी नज़र ईश्वर पूंधोट्टम पर पड़ती है जो कांतारा की एक पवित्र जगह है और दिव्य शक्ति द्वारा संरक्षित है तभी उसकी महत्वाकांक्षा को असली चुनौती मिलती है।
कई सालों बाद कहानी पहुंचती है विजयेंद्र (जयाराम) तक, जो भांगड़ा का राजा है। लंबे शासन के बाद उसका बेटा कुलशेखर (गुलशन देवैया) राजा बनता है, और उसकी बेटी कनकवती (रुक्मिणी वसंत) कोष की ज़िम्मेदारी संभालती है।
दूसरी तरफ, कांतारा के नेता बर्मे (ऋषभ शेट्टी) गांव को विकसित करने और लोगों का जीवन सुधारने की कोशिश करते हैं। जब कांतारा के लोग भांगड़ा पहुंचते हैं, तो मामला ज़मीन के मालिकाना हक, उसकी रक्षा और उसके विनाश की धमकी पर बड़ा संघर्ष बन जाता है।
अगर 2022 की ‘कांतारा’ ने आपकी सांसें रोक दी थीं, तो यह प्रीक्वल (पहला भाग) उस अनुभव को दस गुना बढ़ा देता है। फिल्म जैसे ही कदंब और भांगड़ा वंश और जनजातियों की पृष्ठभूमि वाली आवाज़ से शुरू होती है, आप उसकी दुनिया में खो जाते हैं।
हर दृश्य बेहद बारीकी से गढ़ा गया है। दमन, समानता और शोषण इन सबको फिल्म गहरी संवेदनशीलता से छूती है। जैसे रथ और घोड़े वाला दृश्य, जहां कांतारा की जनजाति जिन्हें अछूत माना जाता है उन्हें चलाते हैं। यह दृश्य इतना सहज और दमदार है कि नज़र हटाना मुश्किल हो जाता है।
फिल्म का पहला हिस्सा बेहद दमदार है। चाहे रथ और घोड़े का पीछा करने वाला सीन हो या इंटरवल से पहले जंगल की लड़ाई फिल्मनिर्माण अपने शिखर पर दिखता है। ऋषभ शेट्टी ने जिस जुनून और मेहनत से इसे बनाया है, वह हर फ्रेम में झलकता है।
जब कहानी भांगड़ा राज्य और शराबी कुलशेखर पर आती है, तो एक और जनजाति का जिक्र होता है और कहानी और गहरी हो जाती है। यह सिर्फ अमीर बनाम गरीब की लड़ाई नहीं है, बल्कि जनजातियों के भीतर भी सत्ता संघर्ष और अच्छाई-बुराई की जंग सामने आती है। ‘कांतारा’ की डरावनी गुलिगा चीख यहां और भी प्रभावी हो जाती है। ऋषभ शेट्टी का बर्मे अलग-अलग तरह की चीखों से भावनाएँ प्रकट करता है। ये दृश्य लगातार रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं।
अगर ऋषभ शेट्टी इस फिल्म का स्तंभ हैं, तो रुक्मिणी वसंत (कनकवती) मजबूत सहारा हैं। उनका किरदार बहुत दमदार है और उन्होंने शानदार अभिनय किया है। जयाराम अपनी अनुभवी अदाकारी से फिल्म को और गहराई देते हैं। गुलशन देवैया का अयोग्य राजा वाला रोल इतना सही बैठता है कि उनकी मौजूदगी ही खलती है और यही उनकी सफलता है।
‘कांतारा: चैप्टर 1’ की सबसे बड़ी ताकत उसकी परतदार और प्रतीकात्मक कहानी है। यह सोचने पर मजबूर करती है, और जब कोई फिल्म ऐसा करती है तो वह दर्शकों को पूरी तरह बांध लेती है। कहानी और अभिनय के अलावा फिल्म तकनीकी स्तर पर भी बेहतरीन है। अरविंद एस कश्यप की सिनेमैटोग्राफी, अजनिश लोकनाथ का संगीत और विज़ुअल इफेक्ट्स शानदार हैं।
‘कांतारा’ की तुलना में प्रीक्वल में और भी बड़े सिनेमाई दृश्य हैं, लेकिन यह कहानी पर हावी नहीं होते। हालांकि, दूसरे हिस्से में कुछ ग्राफिक्स थोड़े कमजोर लगते हैं, पर यह छोटी सी कमी है। फिल्म का क्लाइमैक्स और गुलिगा वाले दृश्य बार-बार देखने लायक हैं। ऋषभ शेट्टी इन पलों में वाकई प्रकृति की ताकत जैसे लगते हैं। इतने प्रभावशाली दृश्य और इतनी गहरी कहानी के साथ, ‘कांतारा’ की इस दुनिया से प्यार होना स्वाभाविक है। इसी वजह से ‘कांतारा: चैप्टर 1’ इस साल की बेहतरीन फिल्मों में गिनी जाएगी।